क्या है नोट के बदले वोट कांड? 30 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने क्यों बदला अपना फैसला? जानें यहां

संसदीय परंपरा जितनी पारदर्शी और पवित्र है उतनी ही उत्तरदायी भी होनी चाहिए। हालांकि अक्सर संसद में बैठे सांसद या फिर विधानसभाओं में बैठे विधायक अपनी कई जिम्मेदारियों से बचने के लिए रास्ता तलाश लेते हैं। कई बार उन्हे उनके विशेषाधिकारी का सहारा भी मिल जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ था 30 साल पहले जब संसद में नोट के बदले वोट कांड हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने सांसदों के विशेषाधिकार को सर्वोपरी मानते हुए इसके लिए किसी को दोषी नहीं माना। हालांकि तीस साल बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने अपना ही फैसला बदल दिया है। आइये जानते हैं तीस सालों में कैसे बदली राजनीति और कैसे बदला एक फैसला।

दरअसल जिस मालमे पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला पलटा है वो मामला 30 साल पुराना है और झारखंड मुक्ति मोर्चा घूसकांड से जुड़ा हुआ है। ये वही मामला रहा है जिसने 1993 में देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था। और इसी मामले ने नोट के बदले वोट को पैदा किया था।

बात है साल 1991 की जब आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन बहुमत से दूर रहीं। कांग्रेस को 232 सीटें मिली थीं और बहुमत का आंकड़ा 272 था। वहीं प्रधानमंत्री पद के लिए पीवी नरसिम्हा राव के नाम ने सबको चौंकाया। उन दिनों देश समय तमाम परेशानियों में घिरा था। राम मंदिर आंदोलन जोर पकड़ रहा था। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहाए जाने के बाद माहौल और बिगड़ गया।

नोट के बदले वोट कांड कुछ ऐसे हुआ
फिर 1993 में राव सरकार के खिलाफ सीपीआई (एम) के एक सांसद अविश्वास प्रस्ताव ले आए। उस समय कांग्रेस की गठबंधन सरकार के पास 252 सीटें थी, लेकिन बहुमत के लिए 13 सीटें कम थीं।इसके बाद 28 जुलाई 1993 को जब अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हुई तो उसके पक्ष में 251 वोट तो विरोध में 265 वोट पड़े। राव सरकार उस समय गिरने से बच गई, लेकिन तीन साल बाद वोट के बदले नोट का मामला सामने आ गया।

जब वोट के बदले नोट का मामला सामने आया तब पता चला कि 1993 के अविश्वास प्रस्ताव में जेएमएम और जनता दल के 10 सांसदों ने इसके खिलाफ वोट डाले थे। इसके बाद सीबीआई ने आरोप लगाया कि सूरज मंडल, शिबू सोरेन समेत जेएमएम के 6 सांसदों ने वोट के बदले रिश्वत ली थी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। जिसके बाद पांच जजों की बेंच ने 1998 में फैसला दिया कि संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत, संसद के किसी भी सदस्य को संसद में दिए गए किसी भी वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ सभी मामलों को खारिज कर दिया।

2012 में सीता सोरेन ने खटखटाया हाईकोर्ट का दरवाजा
वहीं 1993 के बाद साल 2012 में एक बार फिर रिश्वत खोरी के आरोपों के तले पूर्व सीएम हेमंत सोरेन की भाभी व शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन आई और फिर से रिश्वतखोरी का मामला अदालत जा पहुंचा। दरअसल, 2012 में हुए राज्यसभा चुनाव के दौरान झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन तब जामा सीट से विधायक थीं। सीता सोरेन पर आरोप लगा कि उन्होंने राज्यसभा चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत ली। जिसके बाद सीता सोरेन पर आपराधिक मामला दर्ज हुआ। सीता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला रद्द करने की मांग की मगर अपील यहां खारिज हो गई।

हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दे दिए। इधर सीता सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और 1998 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जिस तरह उनके ससुर को कानूनी कार्रवाई से छूट मिली थी, देश का संवैधानिक प्रावधान उन्हें भी सदन में हासिल विशेषाधिकार के तहत मुकदमे से छूट देता है।

4 मार्च 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने बदला फैसला
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रही। क्योंकि 1998 का फैसला 3:2 की बहुमत से पांच जजों की बेंच ने सुनाया था। इसलिए उस फैसले की समीक्षा के लिए 7 जजों की बेंच का गठन हुआ और उसने अगले ही महीने सुनवाई पूरी कर ली 4 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में न सिर्फ अपने पुराने फैसले को पलटा, बल्कि राहत देने से भी इंकार कर दिया। कोर्ट ने साफ कहा कि अगर कोई भी विधायक-सांसद पैसे लेकर सवाल या फिर वोट करता है उसे किसी भी तरह की कानूनी छूट नहीं मिलेगी। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मुकदमा चलेगा

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