उत्तरप्रदेश से अलग उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर 1994 में जनसैलाब सड़कों पर उतरा था। जिसे दबाने की खातिर तत्कालीन मुलायम सरकार की पुलिस ने कथित जुल्म ढ़हाए। उस दौरान आंदोलनकारियों पर खटीमा, मसूरी, नैनीताल और देहरादून में गोलियां चलाईं कई स्थानों पर लाठीचार्ज किया। दिल्ली कूच करते वक्त मुजफ्फरनगर तिराहे पर तो गांधी जयंती पर पुलिसिया हैवानियत की नई इबारत लिखी गई। तब न सिर्फ गोलियां चलीं बल्कि औरतों ने बलात्कार तक झेला। राज्य आंदोलन में 42 शहादतें हुई।
जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को हिंदुस्तान के नक्शे पर उत्तराखण्ड एक नए राज्य के तौर पर उभरा था। अतीत इस बात का गवाह है कि बीते 24 सालों में 12 बार सरकारों के शपथ ग्रहण हुए। इस दौरान भाजपा और कांग्रेस के 10 लोग मुख्यमंत्री बने। युवा पुष्कर सिंह धामी सूबे की बागडोर संभाल रहे हैं। जिनके नेतृत्व में राज्य में पहली बार सरकार रिपीट हुई। वरना चुनाव दर चुनाव में सरकार बदलने का सिलसिला रहा है।
सिर्फ कांग्रेस के स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी ही पांच साल का कार्यकाल पूरा करने में सफल हो पाए। गौरतलब है कि राज्य गठन के वक्त स्वर्गीय नित्यानंद स्वामी भाजपा की अंतरिम सरकार की बागडोर संभालने वाले इतिहास पुरुष बने। उन्हें बेदखल कर 4 महीने सत्ता संभालने वाले भगत सिंह कोश्यारी को जनता ने पहले आम चुनाव में नकार दिया और कांग्रेस को बहुमत मिला। पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया बने नारायण दत्त तिवारी ने उत्तराखंड में आधारभूत ढांचे और औद्योगिक विकास की बुनियाद रखी।
दूसरी विधानसभा के कार्यकाल में भाजपा के रिटायर्ड मेजर जनरल भुवन चंद्र खण्डूरी ने उस सिलसिले को आगे बढ़ाया। लेकिन कड़क मिजाजी से उभरे विधायकों के असंतोष और 2009 के लोकसभा चुनावों में हार का बड़ा खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। जिसके चलते रमेश पोखरियाल निशंक ने उन्हें रिप्लेस किया। जो सिटरजिया भूमि मामले में घिरने और विद्युत परियोजना आवंटन में कथित भ्रष्टाचार के आरोप चस्पा होने पर कुर्सी खो बैठे। तत्कालीन ‘अन्ना आंदोलन’ की हवा के बीच भाजपा हाईकमान ने खंडूरी को दोबारा मुख्यमंत्री बनाया।
तीसरी विधानसभा के कार्यकाल में विजय बहुगुणा के नेतृत्व में कांग्रेस की गठबंधन सरकार गठित हुई। जिन्होंने गैरसैंण में ‘ट्रांजिट एसेंबली’ का शिलान्यास करके एक नया इतिहास बनाने की अधूरी कोशिश की। लेकिन ‘केदारनाथ आपदा’ से निपटने में नाकामी उनके हटने का कारण बना। उनके बाद मुख्यमंत्री बने हरीश रावत ने इच्छा शक्ति दिखाते हुए आपदा के खौफ से उबारने में बड़ी भूमिका निभाई।
हरीश रावत ने गैरसैंण में टैंट तंबूओं में विधानसभा सत्र आयोजित करके उत्तराखंड में एक नई इबारत लिख डाली। लेकिन कथित ‘एकला चलो’ नीति के खिलाफ बीजेपी के संरक्षण में बहुगुणा खेमे के विधायकों ने सरकार गिराई और राष्ट्रपति शासन लगा। रावत सरकार सुप्रीम कोर्ट की दखल से तो बहाल हुई लेकिन आम चुनावों में बेदखल हो गयी।
भाजपा को ‘मोदी युग’ में हुए चौथी विधानसभा के चुनावों में प्रचंडतम बहुमत मिला। त्रिवेंद्र सिहं रावत को सूबे की बागडोर सौंपी गई थी। उनके कार्यकाल में गैरसैंण को ‘ग्रीष्मकालीन राजधानी’ का ऐतिहासिक रुप से दर्जा दिया। बेशक त्रिवेंद्र के कार्यकाल में भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ सख्ती दिखी। लेकिन भाजपा हाईकमान ने कतिपय विवादास्पद फैसलों की छाया और कथित संवादहीनता के चलते पनपे असंतोष की वजह से उन्हें आनन फानन में हटा दिया।
इस कड़ी में तत्कालीन सांसद तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया और महज 4 महीने बाद चलता कर दिया गया। वह शायद ही इस पहेली का उत्तर ढूंढ पाएं हो कि आलाकमान ने उनके साथ मजाक किया या उपकार। उन्हें बाद हटाकर राज्य में पांचवे आम चुनावों से ठीक पहले युवा विधायक पुष्कर सिंह धामी के सिर पर ताज सजाया गया। भाजपा को अप्रत्याशित रुप से लगातार दूसरी बार बहुमत मिला।
उत्तराखंड की पांचवीं विधानसभा चुनाव में पुष्कर खुद चुनाव हार गए, लेकिन मोदी का उन पर भरोसा कायम रहा। उनकी सरकार ने समान आचार संहिता कानून (UCC), कथित जबरन धर्मांतरण और लव जेहाद के खिलाफ कानून बनाए हैं। कथित अवैध मजारों के ध्वस्तीकरण से साफ है कि धार्मिक या फिर कहें सांप्रदायिक ध्रुवीकरण धामी सरकार की प्राथमिकता में है। हालांकि, उनके कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 30 फीसदी क्षैतिज आरक्षण और राज्य आंदोलनकारियों के लिए 10 फीसदी क्षैतिज आरक्षण, पेपर लीक और नकल के खिलाफ कानून भी बने हैं।
उत्तर प्रदेश से अलग होने पर सूबे की प्रति व्यक्ति आय करीब 15,285 रू. अब छलांग मारकर 2 लाख 60 हजार रु. तक पहुंचने का अनुमान है। उधर, आर्थिक विकास दर करीब 7 फीसदी है। राज्य गठन के वक्त रहे सालाना बजट का आकार 4500 करोड़ से बढ़ते हुए अब 94,000 करोड़ तक पहुंच गया। उत्तर प्रदेश से तुलना करें तो न सिर्फ ‘पर कैपिटा इंकम’ बल्कि वार्षिक योजना का आकार बढ़ा है।
कोई दो राय नहीं कि मूलभूत सुविधाओं में भी इजाफा हुआ। स्कूल-विश्वविद्यालय और अस्पतालों की संख्या में वृद्धि हुई और एम्स और आईआईएम सरीखे संस्थान स्थापित हुए।बेशक चारधाम ऑल वेदर रोड और ऋषिकेष- कर्णप्रयाग रेल परियोजना से उम्मीदों के नए पंख लगे हैं। लेकिन बेरोजगारी की समस्या का समाधान नजर नहीं आ रहा।
राज्य गठन के 24 साल बाद भी समुचित सुविधाओं के अभाव में पहाड़ से पलायन का सिलसिला नहीं थमा। अल्मोड़ा और पौडी जिलों के आंकड़े तो डराने वाले हैं। उत्तर प्रदेश के दौर में पहाड़ से लोग महानगरों को रूख करते थे। वहीं, उत्तराखंड में देहरादून, हरिद्वार, उधमसिंहनगर और नैनीताल के मैदानी इलाकों में बसने को तरजीह दे रहे हैं।
तत्कालीन यूपी के पहाड़ी इलाकों में भौगोलिक परिस्थितियों, विकास और प्रशासनिक उपेक्षा से छुटकारा पाने को ही एक अलग पर्वतीय राज्य की मांग बुलंद हुई थी। लेकिन पहाड़ी नेता सुविधाओं के लिए चुनाव लड़ने के लिए मैदान में सीटें तलाश रहे हैं। अगर अपवाद छोड़ दें तो कमोबेश हर सरकार के कार्यकाल में उत्तराखंड में अफसरशाही नजर आई।
दरअसल, पर्वतीय राज्य की मांग थी लेकिन उसमें भविष्य की व्यवहारिक जरूरतों के मद्देनजर मैदानी भू- भाग भी शामिल हुआ। पहाड़ बनाम मैदान के वोट गणित में स्थायी राजधानी का निर्धारण उलझ गया। बेशक उत्तराखंड को एक नए राज्य के स्वाभाविक फायदे मिले हैं। लेकिन समग्र और संतुलित विकास का मॉडल विकसित नहीं हो पाया। अलबत्ता सियासी महत्वाकांक्षा में आम जनमानस की उम्मीदों पर भारी पड़ी हैं।
ये लेख वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार राहुल सिंह शेखावत से प्राप्त हुआ है। राहुल सिंह शेखावत लंबे समय से उत्तराखंड में पत्रकारिता कर रहें हैं। राहुल सिंह शेखावत राज्य निर्माण से लेकर वर्तमान तक राज्य में हुए बड़े बदलावों और घटनाक्रमों के साक्षी रहे हैं।